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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Monday 29 October 2012

गुलामी

गुलामी का दर्द बयां करना है मुश्किल
गुलामी में चैन सुकून सब जाता है छीन
दर्द गुलामी का, पूछो उस परिंदे से
कैद है जो, आज एक छोटे से पिंजरे में

झील और झरने का पानी पीता था जो हरदम
कटोरी में पानी देख घुटता है उसका दम
स्वभाव था उसका डालियों में फुदकने का
आज करता है नाकाम कोशिश सलाखों को कुतरने का

पंख फैलाए उड़ता था, कभी दूर आसमां
अब तो पंख फैलाते ही, खत्म होता है जहां
पर्वत की चोटी पर बैठ, ढलते सूरज को निहारता था कभी
आज तो सूरज की रौशनी ही, नसीब होती है कभी-कभी

पहले मीठे फलों को दूर तक ढूंढने था जाता
अब रुखी सुखी रोटी के संग दिन है बिताता
गुलामी के जंजीरों में, जब से दिन है बिताया
आज़ादी का सही मतलब, उसको समझ आया 

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