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एक अपील

ऐ घर पे बैठे तमाशबीन लोग लुट रहा है मुल्क, कब तलक रहोगे खामोश शिकवा नहीं है उनसे, जो है बेखबर पर तु तो सब जानता है, मैदान में क्यों नही...

Friday 20 July 2012

रौशनी कि तलाश

तलाशता हू रौशनी मै इस अँधेरी दुनिया में
अब तक तो लगी है बस निराशा हाथ
पर उम्मीदों पर टिकी है ये जहाँ
मै अपनी उम्मीदे कैसे छोड़ दू

जहा भी गया मिला बस अँधेरा
एक हल्का सा उजियारा भी न दिखाई दी
निकल आया हू बहुत दूर उसे ढूंढने
अपने को वापस कैसे मोड़ लू

रौशनी कि बाते सभी करते है मगर
अँधेरे में जीने कि सबको आदत है
रोज देखता हू सपना उसके मिल जाने की
वो हँसी सपना मै कैसे तोड़ दू 

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